पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तिन्हैं सिखावनजोग सूत्र कोऊ कहुँ नाही, केवल परम प्रबीननि के प्रावत कर माहौँ । जहँ कहुँ कोऊ नियम होहिँ न समर्थ यथारथ, (काहे सौँ कै नियम-काज साधन उदेस पथ,) तहँ अभीष्ट जो कोउ स्वतंत्रता सुभगति साजै, तौ स्वतंत्रता ही ता थल को नियम बिराजै ॥ जो प्रतिभा कबहूँ लाघव सौं करि अति प्रीती, छोड़ि नियत पथ चलै भलैं तौ नाहिँ अनीती; करि उदंड क्रमच्युति समान मर्यादहिँ त्यागै, लहै कोऊ लावन्य जो न नियमनि कर लागै, विना जाँच ही जो हिय में अधिकार जमावै, सकल इष्टफल एक · बारही सहज लहावै॥ ते सहि बन इत्यादिक सुभग दृस्य मैं भारी, होत पदारथ ऐसे किते नैन-रुचिकारी, जो सुप्रकृति-सामान्य-सीम सौँ निकरत न्यारे, आकृतिहीन पहार तथा अति बढ़े करारे ॥ सुकबि, प्रसंसनीय विधि, भलहिँ नियम कहुँ तोरहि, करहि दोष जिहिँ सोधन सद जाँचक* साहस नहि ॥ पै जद्यपि प्राचीन कबहुँ निज नियमहिँ तोरें, (ज्याँ बहुधा राजा निज-कृत-बिधि सौं मुख मो”,)।

  • इस लेख में 'जांचक' शब्द जाँच करनेवाले विवेचक के अर्थ में युक्त किया गया है।