पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५६०

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बिमुख-वितंडी-प्रेत-मंडी खंड खंड होति अंडबंड बात चाई-भूत-भीर सारी की। बैरिनि के फेफरे फलकि फटि फाँक होत हाँक होत बाँके बजरंग धाक-धारी की ॥२॥ आपि अवलंब जगदंब अवधेस्वरी काँ अरि की असोक-बाटिका धरि उजागौ । कहै रतनाकर त्याँ अच्छय-घमंड खंडि चंडकर-पूत-दीठि चंडनि पै पारैगौ ॥ दैहै अमी मूलिका सुमित्रानंद रच्छन काँ बेगि ही बिपच्छिनि के पच्छनि काँ छारैगौ। भारी-भीर-भंजन प्रभंजन को पूत बीर गंजन गनीम को गुमान करि डारैगौ ॥३॥ कैयौँ बलसागर की उद्धत तरंग तुंग बोरन काँ सेना रजनीचर अकूत की। कहै रतनाकर के संत-मान-रच्छन कौँ महिमा बसिष्ठ-दंड परम प्रभूत की। जानकी के सोक जलजान की मथूल कियाँ कैयौँ बर ब्रज की विभूति पुरहूत की। कठिन कराल काल-दंड की रुजा है राम जीत की धुजा है कै भुजा है पौनपूत की ॥४॥