पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५६२

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कैयौँ मनि कामद-मयूष की छटा है कि सुर-मुनि-तेज-लय अमल अदागी है। कैौँ वेद-कवि की प्रतच्छ प्रतिभा है कैधौं प्रगट-प्रभा है आदि जोत जग जागी है।।१॥ सकल मनोरथ की सिद्ध बल-बुद्धि-वृद्धि संवति-समृद्धि दै दुलारतै रहति है। कहै रतनाकर निहारि करुना की कोर करवर-निकर निवार रहति है। दारिद के ब्यूह ौ समूह दुरभागनि के पातक के जूह जोहि जारते रहति है। ज्वालामुखी मातु निज भक्तनि सुखी कै सदा मुक्ति-मुक्ति-दनि बगारतै रहति है॥२॥ सकल सँवारन की सिद्धि सुभ तोमै ताकि विधि-बुधि जोग औ अजोग की बिसारी है। कहै रतनाकर तिहारौ प्रतिपाल हेरि परिहरि चिंता सुख-नींद हरि धारी है॥ दुष्ट-दल-पालन की घात मैं बिलोकि तोहि अचल समाधि साधि राखी त्रिपुरारी है। भारत की भारत पुकार सुनिबै कौँ एक ज्वालामुखी मात जोति जागति तिहारी है ॥ ३॥