पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५६५

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भारत होहु न भारतवासी सँभारत दुःख सबै ठिलि जात है। त्यौँ रतनाकर हाथ औ माथ हिलाएँ हिमाचल हूँ हिलि जात है ॥ काह न होत उछाहनि सौं मृदु कीट हू पाहन मैं पिलि जात है। आरस त्यागि कै ढारस कीन्हें सुधारस पारस हूँ मिलि जात है ॥३॥ कहै क्या अब कृपा का भी न यह अधिकारी रहा या कुछ कृपा ही ने निठुरपन धारा है। रतनाकर उसी की तौ दसा है यह जिसको अनेक बार तुमने दुलारा है ॥ हारा बल पौरुष न इष्ट रहा कोई कहीं एक आपही की दया-दृष्टि का सहारा है। हाथ पावँ मारा भी न जाता इससे है अब गारत हुआ यौँ हाय भारत हमारा है ॥ ४ ॥ (१२) हरिश्चन्द्र मूरति सिँगार को अगार भक्ति-भायनि को पारावार सील औ सनेह सुघराई को । कहै रतनाकर सपूत पूत भारती को भारत को भाग औ सुहाग कविताई कौ ॥