पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५६६

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धरम धुरीन हरिचंद हरिचंद दूजौ मरम जनैया मंजु परम मिताई को। जानि महिमंडल मैं कीरति समाति नाहिँ लीन्यौ मग उमगि अखंडल अथाई कौ ॥ (१३) शुद्धि क्रुद्ध है मलेच्छनि की सुद्धि के विरुद्ध बने जाल जे कुबुद्धि तनै उद्धत अडंगा को । कहै रतनाकर न संकुचित होत रंच परम प्रपंच रचै दंभ अरु दंगा कौ ॥ लाइ कै लबार हरताल निगमागम पै छाइ कै विकार निज कुमति कुढंगा को । झाँप हरिनाम के प्रताप पर पारत हैं। गारत है गौरव गँवार गुनि गंगा कौ ॥ १ ॥ मानत हुते कै यह मंजुल महान मंत्र सब सुख-साधन की सिद्धि उपनावैगौ । कहै रतनाकर पै धरम-धुरीननि सौं जानि परचो सो तौ कछु काम नहिं आवैगौ ॥ म्लेच्छनि के रंचक प्रपंच-पेंच सौ जो ऍचि हिंदुनि की पाँति मैं सुभाँति ना बिठावैगौ । सोई हरि नाम जम-पास ते निकासि कहा सुखद सुपास सुर-वास में बसावैगौ ॥२॥