पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५६८

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ऐसी कछु चपल चलाचल चली है इहाँ जीवन तुरी पै अति आतुरी मचावै है। किरन-छटा सौँ दिन तरनि ततावै रैनि बेगि चलिवै कौँ चंद चावुक लगावै है ।। ४ (१६) गंगा-गौरव 4 गंग-कछार के मंजुल बंजुल, काक कोऊ महामोद उफानै देखत प्राकृत सुंदरता पद, प्राकृत ही के हिय ठिक ठानै ॥ पाइ सुधा-सम बारि अघाइ न, आपनी जोट कोऊ जग जाने । हंस कौँ हाँस मजूर मयूर कौं, कोइला कोकिला कौँ मन मानै ॥१॥ पापिनि की मंडली लुकाए देति जानैं कहाँ, धाए तिहुँ लोक पै न पावति पतीजियै । कहै रतनाकर बिधाता सौं पुकारै जम, खाता खीस होत सवै याही दुख छीजियै ।। पूछै उठै गाजि तापै हँसत समाज सबै, लाजनि कहाँ लगि लहू की चूट पीजियै । कैतौ कैद कीजियै कमंडल मैं गंग फेरि, कैतौ यह साहबी हमारी फेरि लीजियै ॥२॥