पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५६९

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(१७) स्फुट काव्य जाके सुर प्रबल प्रबाह को भकोर तोर सुर-नर-मुनि-बूंद-धीर-बिटप बहावै है। कहै रतनाकर पतिब्रत परायन की लाज कुलकान को करार विनसावै है ॥ कर गहि चिबुक कपोल कल चूमि चाहि मृदु मुसुकाइ जो मयंकहिँ लजावै है। ग्वालिनि गुपाल सौँ कहति इठलाय कान्ह ऐसी भला कोऊ कहूँ बाँसुरी बजावै है ॥१॥ जब ते रची है रूप रावरे रसिकलाल तब तै बनी है बाल बात बरकत की। कहै रतनाकर रही है रुचि नैननि मैं मीन मुख मंजुल मुकुत ढरकत की। आठौ जाम बाम मग जोहत मृगी सी जब चौंक पाय आहट तिनूका खरकत की। अनुराग रंजित अवाज सौँ कढ़त स्याम मानिक तै मानहु मरीचि मरकत की ॥ २॥ ज्यौँ भरि कै जल तीर धरी निरख्यौ त्यौँ अधीर है न्हात कन्हाई । जाने नहीं तिहि ताकनि मैं रतनाकर कीनी कहा टुनहाई ॥ छाई कछू हरुवाई सरीर के नीर मैं आई कछू भरुवाई । नागरी की नित की जो सधी सोई गागरी आजु उठे न उठाई ॥३॥