पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७

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" सावधान पै, अहो आधुनिक ! तुम नित रहियो, दिखरायौं जो सुखद पंथ तिन साई गहियो तोरन ही जो परै नियम कोउ इष्ट-लाभ-हित, तौ ताकी उद्देस्यसीम नाँघौ न कदाचित सो, पुनि कबहुँहि, करौ, तथा अति आवस्यक गुनि; औ उनका प्रमान, ता तोरन मैं, राखौ चुनि ॥ नातरु खंडक दयाहीन निज कलम चलैहै, ख्याति तिहारी लै प्रचार निज नियमनि दैहै ॥ या जग में केते घमंड करि इमि मतिमूसित. सुभ आर्षहु स्वतंत्र सोभा जिन लेखें दूषित ॥ रूपक कोऊ भयंकर औ भदेस अति भासै, लखें पृथक करि, के है अति नेरै, अन्यास, जो, केवल निज प्रभा, ठाम सुंदर अनुहारी, लहत उचित अंतर सौँ आकृति, सेभा प्यारी ॥ चतुर सेनपहिँ नित न अवस्यक बल दिखरावन, बाँधि बराबर दलनि, जुद्ध करि सुद्ध सुभावन; देस काल अनुसार उचित ताकौँ आचरिबी, गोपन सेना कबहुँ भासि भाजत कहुँ परिवौ । बहुधा छल दूषन दरसाने, बालमीक ऊँध्या स्वम मैं हमहि भुलाने ॥ भूषन ते जे