पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७०

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लै लियौ चुंबन खेलत मैं कहूँ तापै कहा इतनौ सतरानी । हाँठनि ही मैं कछू करि सौंहैं बृथा भरि भौंह कमान हैं तानी ॥ लीजियै फेरि सबेर अबै अबहीं तौ मिठासहुँ नाहिँ सिरानी । यौँ कहि साँहैं कियौ अधरा इन वे तिरछाँहै चितै मुसकानी ॥४॥ स्वासनि की मृदु मंजुल बास सु एला बरास-बिलास बसावति । सील सकोच की रोचकता रतनाकर त्यौँ रसता अधिकावति ॥ दाँतनि की दुति बातनि मैं विथुरे त्वग छीरक की छवि छावति । पाटल की पंखुरी अधरानि कौँ मंद हँसी गुलकंद बनावति ॥५॥ तंग अँगिया सौँ तन्यौ चोटी साँ चमाटी पाइ हिय हुमसावत सुढंग चल्यो जात है। कहै रतनाकर त्यौँ जोबन उमंग भरयौ ग्रीवा तानि उन्नत उतंग चल्यौ जात है ॥ पायौ मरुभूमि मैं कहाँ ते इतौ पानिप जो पूरत तरंग अंग अंग चल्यौ जात है। यूँघट बनाए पैंड पैंड लखौ एंडत अनंग को तुरंग चल्यौ जात है ॥६॥ देति ही काल्हि ही सीख हम पर आपु ही आज मलोलन लागी । सामुहै आयौ सुबोल बड़ौ अब तो लघुता लिए बोलनलागी ॥ रूप-सुरा रतनाकर की चख ते अँखियाँ इमि लोलन लागी । बावरी लौँ बलि कुंजनि कुंजनि भाँवरी देत सी डोलन लागी ॥७॥ ठमकत