पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७१

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मोहन की मनमोहनी मूरति देखे बिना कल पावत नाही । देखें अदेखिनि की अवली कहूँ तालु सौँ जीभ लगावत नाही ॥ कीजियै कैसी दई की दया मरिवेहूँ को ब्याँत बनावत नाही । मीच की कौन कहै रतनाकर नींद हूँ नीच तौ आवत नाही ॥८॥ ठाढ़ी अबै चलि होहु कहूँ न तु बीर न भीर मैं पावँ थिएँगे। हाट औ बाट अटारिनि के घर-द्वारिनि के सब ठाम घिरेंगे ॥ देखन कौँ रतनाकर के बस नैं मैं एक पै एक गिरेंगे। धेनु चराइ बजावत बेतु सुन्यौ इहिँ गैल गुपाल फिरेंगे ॥९॥ जोग का भोग न भैहै हमैं सो सँजोग की भावना टारी न जैहै । रूप-सुधा-रतनाकर छाँड़ि वृषा मृग-नीर निवारी न जैहै ॥ हौड़ न आइवे इबे की परी ऊधव सो अव हारी न है। धारी न जैहै तिहारी कही वह मूरति मंजु विसारी न जैहै ॥१०॥ हटकन संभु को न मानि हठ ठानि चली आई पितु गेह बात जानि स उछाह की। कहै रतनाकर तहाँ सनमान पाइ मन पछितान में बिलानी गति चाह की ॥ पति अपमान मानि जदपि जराई देह तदपि समस्या भई कठिन निबाह की। भाबी बस और की कहै को यौँ सती हुती के ती हुती पतिव्रता कही न मानी नाह की ॥ ११॥