पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७२

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पै पै दत मुकताली मैं निराली लसै लाली बलि अधर चुनी ते प्रभा नीलम की फूटी है रतनाकर कपोल पनरागनि पै कल कुरुबिंद की छबीली छटा छूटी है । कैसी मनवारी माल धारी है अनोखी यह जाकी बिन गुन ही पत्यारी रहै जूटी है। जूटी है कहाँ ते यह संपति प्रबीन आज कौन से नवीन जौहरी की हाट लूटी है ॥ १२ ॥ जमुना-कछारनि बन-द्रुम-डारनि औरै कछू मंजु मधुराई फिरि जाति है। रतनाकर अगारनि पै बारनि पै बनक-निकाई फिरि जाति है। नर-पसु पच्छिनि की चरचा चलावै कौन पौन गौनहू मैं सरसाई फिरि जाति है। जहाँ जहाँ बाँसुरी बजावत कन्हाई बीर तहाँ तहाँ मदन-दुहाई फिरि जाति है ॥ १३ ॥ मन होत्यौ न जौ पहिले ही तौ ता बिन होती न ऐसी दसा तन की। रतनाकर जानै सु मानै बिथा निधि पाइ कै हाय गँवावन की। नहिँ आनन की कछु आनन पै चतुराई चितै चतुरानन की। हाथ ही पारिबौ हो मन जौ तौरच्यौ किन मोहिँ बिना मन की ॥१४॥ त्यौँ नगर