पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७३

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फूल मंडली को बर बानक न्यौ है बन चारों आस सुख सुखमा की रासि छै रही । रतनाकर रसिकमनि स्यामास्याम झूलत हिंडोरै सखि चहुँघाँ उनै रही । केती रस चूमि रही केती झुकि झूमि रही चूमि चूमि आँगुरी बलैया किती लै रही । केती झनकारि न नूपुर नगीना अरु बोना लिए केतिक प्रबीना गान कै रही ।। १५ ॥ ले लियौ चुंबन तोऽब कहा अधरा तौ रह्यौ तुम पास तुम्हारौ। एते ही पै इतनौ करि रोस कियौ इमि तेवर तानि करारौ ॥ पै अपनौ तौ कियौ नहिँ देखति लेखति ताहि तौ खेल पसारौ। देखौ हियँ धरि हाथ अहो तन मैं न रह्यौ मन हाय हमारौ ॥ १६॥ भाव नए चित चाव नए अनुभाव नए उपराजति ही रहै। आँस सौं नैन उसास सौं अानन गाँस सौँ प्राननि छाजति ही रहै ।। कीजै कहा रतनाकर हाय अकाज के साजनि साजति ही रहै । कानन मैं बिन बाजै हूँ वैरिनि काननि मैं नित बाजति ही रहै ॥ १७॥ लालसा लगीय रहै भरि दृग देखन कौं सुंदर सलोने वहै साँवरे पुरुष के । जोहि जोहि मोहाँ जाहि सो छबि न जोहाँ फेरि घेरि रहाँ याही हेर फेर में बपुष के ।।