पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पारावार सुखमा अपार हलोरनि साँ औरै और चोप चढ़े होत सनमुख के । पल पल माहिँ होति प्लावित पयोनिधि मैं विपुल वियोग औ सँजोग दुख सुख के ॥१८॥ मोहे नैन जोहि कै सुरूप सुखमा को ऐन स्रौन सुनि बैन जो सु-चैन-रस बोयौ है। कहै रतनाकर रसीली रसना रुचि कौँ बतरस-लालच छकाइ छरि छोयौ है। सुखद सुबास पै लुभानी बास-बासना है अंग-अंग परस उमंग-रस पोह्यौ है। सोयौ है कहा पै तोहि परत न जानि मोहि एरे मन जानि ते अजान कहा मोड्यौ हैं ॥१९॥ खेलन कौँ ख्याल औ गुलाल रंग मेलन काँ साल पाहिले लौँ संग सखिनि सिधारी मैं । कहै रवनाकर पै अब के अनोखी कछू अति बिरीपति रीति नवल निहारी मैं ॥ हाँ तौ लख्यौ साबर-बसीकर-प्रभाव मंत्र निपट स्वतंत्र गीति अटपटवारी में । तंत्र-मूठि चलति गुलाल की निहारी अरु मोहन को मंत्र जग्यौ जंत्र पिचकारी मैं ॥२०॥