पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७५

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सारी सखी मंडली मनाइ समुझाइ थकी निज-निज गुन के गुमान सब गार हैं। कहै रतनाकर रसिक मनि मोहन हूँ मोहन कौँ करि मनुहार मन हारै है ॥ एते माहिँ धाइ लगी लाल के हिये सौँ बाल चातक कलापी दापी सुनि ललकार है। ढारै स्वच्छ सुरस सदाई घनस्याम ताते लच्छ करि पच्छ मोर-पच्छ सिर धारै हैं ॥२॥ तौ कत अक्रूर क्रूर आए इहिँ गाम लैन एक ही सौं सो जौ ठाम ठाम ठहराया है। कहै रतनाकर हतायौ किन तासौँ कंस घट-घट जाको निरगुन गुन छायौ है । बिन सिर पाय की उचारन चले जो बात ताको यह कारन हमारे मन भायौ है। रूप तौ इहाँही रह्यौ हिय मैं हमारे तुम्हें ताही ते अरूप-रूप भूप दरसायौ है ॥ २२ ॥ थाती राखि रूप की हमारी हाय छाती माहि बाल को सँघाती घाती बनि बिलगायौ है। कहै रतनाकर सो सूधौ न्याव ही तो ऊधौ मधुपुरि माहि जो अरूप सो लखायौ है।