पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७६

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परम अनूप एक कूबरी विरूप छाँडि रूपवती जुवती न कोऊ मोहि पायौ है । तात तुम्, अब मनभावन सुरूप सोई हिय ते हमारे काढ़ि ल्यावन पठायौ है। २३॥ रूप-रतनाकर-अनूप-अोप प्रानन विलुलित लोल लट ललित लटूरी है। मैन-मद-माते नैन ऐंड-इठलाते बैन जोबन कै छैन छक्यौ आसव अँगूरी है ॥ रोम-रोम रमत निहारें छबि पानिप सो ताहू पै दरस रस-तृपति अधूरी है। लहियत प्रान कान्ह लखत हजारनि पै वारनि की होति तऊ लालसा न पूरी है ॥२४॥ ऐसी दसा लखि कै सखि रावरी बावरी होति न धीर धरचौ परै। कौन के रूप के पानिप को रतनाकर यौँ भरि कै उबरयौ परै॥ बूझै न मानति भेद कछू पर स्वेद है रोमनि सौं सु ढरयौ परै । बैननि सौं रस है निकरयौ परै नैननि सौँ बनि आँस झरयौ परै ॥२५॥ १२-७-३० प्राशा-ब्योम-मंडल अखंड तम-मंडित मैं उषा के शुभागम का आगम जनाता है। उच्च-अभिलाषा-कंज-कलिका अधोमुख को प्रान फूंक फूंक मुकुलित दरसाता है ॥