पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७८

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अथाह परे कुटिल कुचारी के निगीरन मुखारी पर बक्र चाहि चक्र चरखे की फाल बाँधी है। ग्रसित गुरंड-ग्राह भारत भारत-गयंद की गुबिंद भयौ गाँधी है ॥ ३०॥ १-१-३१ बौरे बैद बीदत कहा घौं इहिँ रोग माहिँ सारे जोग जतन अजोग-जोगवारे है। कहै रतनाकर गुनत गारुडी तू कहा यामै जंत्र मंत्र तंत्र निपट नकारे है ॥ हाय हितचिंतक चितावत कहा तू चिंति चाव चित इनकै अचिंत-गति-वारे हैं। एरे गुनी गनक गुनत तू कहा धौँ बैठि प्रेमिनि के नभ मैं न ग्रह हैं न तारे हैं ॥३१॥ ८-१-३१ विषम बियोग-रोग-पीर सौँ अधीर है के बेदन को भेद मन बैद कौँ मुनायौ है। कहै रतनाकर सुनारी-उदबेग जानि निपट निदान के विधान ठहरायौ है ॥ नेह को पचैबौ तप्यौ जीवन अँचैवौ चूंटि नीद भूख प्यास को बचैवौ समुझायौ है । नैननि के पाथ काथ कुमुद-हिये को कह्यौ दलित करेजी पथ्य पावन बतायौ है ॥३२॥ ३१-१-३