पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५७९

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चल चित चाहि इन्हैं चंचल बतावत पै ये तो आनि अचल हिये मैं करें डेरे हैं। कहै रतनाकर निकाम कामबान गर्ने ये तो कामना के घाय पूरत घनेरे हैं। कहत सरोज जे न पावत प्रमान-खोज ये तो रूप-पानिप-अनूप-मौज हेरे हैं। कहत कुरंग जे न जाने कछु रंग ढंग परम सुरंग ये तिरंग नैन तेरे है ॥३३॥ परम प्रचंड मारतंड की मरीचिनि सौं ग्रीषम को भीषम प्रताप इमि छायौ है। कहै रतनाकर मयंक मनि-कांत भयौ सांत राति ह में पारि किरन जरायौ है । बहति लुवार मनौ दहति दवारि देह कैधौँ फनिपति फुफकार-झार लायौ है। कोऊ किधौं बिकल बियोगिनि विनै कै फेरि तीसरी त्रिलोचन को लोचन खुलायौ है ॥२४॥ कूजन लगे हैं पिक पंचम रसीले राग गूंजन लगे हैं भार-संघ सुघराई मैं । कहै रतनाकर रसाल बौरि भूलि उठे फूलि उठे सुमन अनंद अधिकाई मैं ॥