पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५८

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साँ॥ अजी लतनिकृत हरित पुरातन देवल राज, उच्च धर्म-द्रोही-कर-पहुँचन सौं छवि छाजै । बचे दाह सौं, तथा द्वेष के भीष्म रोष साँ, सत्यानासी जुद्ध, कालहू सबसेोष लखहु ! प्रदेसनि सौं बुध धूप दीप लै धावत ! सुनहु ! सकल भाषा मैं सब इकमत गुन गावत ! ऐसी उचित स्तुति मैं सब निज बानि मिलावौ, सब जग मिलि जो गाइ रहयो तामैं सुर लावौ ॥ धन्य छत्रधर सुकबि ! समय सुभ जीवनधारी, सकल जगत अस्तुति के उचित अमर अधिकारी, बढ़त मान जिनका ज्यौँ ज्यौँ जुग अंतर पावे, जैसे नद चौड़ात चले आगैं नित आवे; भू-भविष्य-नर-जाति रावरौ सुयस सरहे, अबहिँ गुप्त जे भूमि सोऊ सब गुन गन गैहै । अहा स्वय परकास ! करै कोउ किरन तिहारी, तुम संतान अधम, अंतिम के उर उजियारी । (निबल पच्छ जो दुरिहिं सौं तुव उड़नि पछावै, उत्तेजित पढ़ि होत कँपत कर कलम उठावै)। मृषा बुधनि दिखरावन-हित यह गुप्त ज्ञान बर, सुमति सराहन स्रेष्ठ रखन संसय अपनी पर ।। "