पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नैकु नैन सौहै ते टरै न इनके सोभाइ मुरि मुसुकाइ जो पिछौँ है चोट पोटी है। चोटी लहरी जो लुरि पीठि पै मुहागिनि की नागिनि है कान्ह के करेजै वह लोटी है ॥३॥ तरुवर-झुंड कहू झुकि कहरात कहूँ सघन लतानि के बितान झपि भूमि रहे । कहै रतनाकर कहूँ हैं सर ऊसर और कहूँ कुस कास के बिलास भरि भूमि रहे। फुदकि बिहंग कहू काँपल कँपावै कहूँ कुदकि प्लवंग कहूँ साखनि को दूँमि रहे। जुरत जलासनि चरासनि कुरंग संग बाघ कहूँ तिन पै लगाए लात घूमि रहे ॥३९॥ १४-२-३१ तरनि तनूजा तीर बीर अवलोक्यौ आज बर ब्रजराज साज सुषमा अभाषी को। रस रतनाकर की तरल तरंगनि सौं होत चल बिचल सुचित्त अभिलाषी कौ ॥ चाह भरि चाहिबौ सराहिबौ उमाहि ताहि थाहिबौ है अमित अकास लघु माखी को। पूरती कळूक रूप-रासि लखिबे की आस आँखिनि मैं होत्यौ जौ निवास सहसाखी कौ ॥४॥ १५-२-३१