पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५८२

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छूटै जटां जूट सौं अटूट गंगधार धौल मौलि सुधागार को अधार दरसत है। कहै रतनाकर रुचिर रतनारे नैन कलित कृपा को चारु चाव सरसत है । चारौं कर चारौं फल बितरत चारों ओर और लेन हारे ना निहारै अरसत है। दै दै बरदान ना अघात पंच अानन सौं दोखि सहसानन सिहात तरसत है ॥४१॥ १५-२-३१ आए बुझावन कौ ब्रज मैं पर ब्रह्म हुतासन की लव लावत। रतनाकर-मीत अहो नहिँ रंचक धीरज-नीर सिंचावत ॥ लाज की आहुती पारि चले इत ताही सौ ऊधव हाय कहावत । लाइ गए हरि आगि बियोग की औ तुम जोग की बात चलोवत॥४२॥ १७-२-३१ खेलन मैं मिस कै गुलाल मूठि मेलन को नैननि अनूठी मूठि चेटक की दै गयो । कहै रतनाकर सुरंग रंग पारि अंग स्याम निज रंग हियै रुचिर रचै गयौ।