पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५८८

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लै अधरानि की माधुरी मंजुल ऊष महूष हूँ लाजति ही रहै। भावनि के रतनाकर अलखी लहरै उपराजति ही रहै । पाननि मैं हिय मैं अंग अंग मैं. यौ धुनि पै धुनि छाजति ही रहै । कानन मैं तो बजै न बजे पर काननि बाँसुरी बाजति ही रहै ॥५६॥ २९-४-३१ आली दिन द्वैक तैंन जाने कहा कौतुक सौ तन मन माहिँ देखि दरसन लाग्यो री । बतरात कछु न जनात कहा अरसन लाग्यो री॥ लखि रतनाकर की वंक भ्रकुटी कौ लोच अकथ सकोच सोच परसन लाग्यौ री। तरसन लाग्यौ जिय जानति न जानि कहा औरै रंग ढंग अंग सरसन लाग्यौ री॥५७॥ २३-५-३१ गोकुल मच्यौ हुरिहारनि के उर अानंद भूले। चलावत स्याम चित रतनाकर नैन निमेष है भूले ॥ बैठत उठत जल जात गात गावं में फाग