पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५८९

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महा लखि गुलाल की धुंधरि मैं ब्रज-बालनि के इमि आनन तूले । काम-कलाकर की मनौ मूठ सौ पावकपुंज पंकज फूले ॥५॥ २४-५-~-३१ सेस दिनेस ले श्री अवधेस को लाइ चिता चित मूल सौँ हूले। जानकी जाइ निसंक चही रतनाकर मानि दई अनुकूले ॥ श्रानन नैन प्रसन्न देव अदेव सवै सुधि भूले। गौरि गिरा मन माहि को मनौ पावक पुंज मैं पंकज फूले ॥ ५६ ।। २४-५-३१ फूले फूले फिरत कहौ तौ तुम कापै अहो याकी तौ महत्ता सत्ता सब का जानी है। कहै रतनाकर विडंबना विचित्र जेती जीवन के चित्र साँ न अधिक प्रमानी है। हाँ सौँ नहीं होति औ नहीं सौं होति हाँ है सदा ताते हाँ चहैयनि नहीं सौँ रुचि मानी है इहि भवसागर में स्वास पासही पै बस पानी के बबूले सी थिरानी जिंदगानी है ॥६०॥ २४-५-३१