पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सकल कारननि मैं जे अंध करन जुरि आवै, चूकभरी नर-मतिहिँ तथा चित काँ बहकावे, सो जो निर्बल हिये प्रबलतम जोर जमावै, है घमंड जो दोष निरंतर कुबुधिहिँ भावै ।। सदगुन की जो करत न्यूनता दैव-भंडारी, ताकी पूरति करत घमंड थोक दै भारी; ज्यौं तन मैं त्यों आत्मा हूँ मैं परत लखाई, जो बल-रक्त-बिहीन भरित सो वात सदाई: बुधि जहँ थकित घमंड तहाँ बनि बान पधार, सुमति-हीनता-कृत खालहिं पुरित करि डारै॥ साधु बिबेक एक बारहु जो सो घन टारे, सत्य सूर्य को प्रबल प्रकास हियहिँ उँजियारै ।। अपनी मति पर अँडहु न बरु निज त्रुटि जानन हित, लेहु काज पति मित्रनि औ प्रति सत्रुनि सौं नित ॥ अनरथमूल महान छुद्र विद्या छिति माही; पीवहु सुरसति-रस अघाय, कै, चीखहु नाही। छुद्र याकी चित्तहिँ अतिसय बौरावै, पै पीबी आतृप्त ठिकाने पुनि तेहिँ ल्यावै ॥ वानि-दान सौं उत्तेजित है आदि माहि नर, निडर जवानी मैं ललचात कला-सुंगनि पर,