पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५९०

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भारत निवासिलि को सहन-सुभाष देखि विस्व चकरान्या परि विस्मय भ्रमर मैं कहै रतनाकर बिलोकी बीरता तो बहु ऐसी पर धीरता न नर मैं अमर मैं ॥ एक ओर कुंतल कृपान घमसान तोप एक अोर टूटी हू कटारी ना कमर मैं । भूले से भ्रमे से भकुवाने से बिलोकि रहे हारि रहे हिंसक अहिंसा के समर मैं ॥६॥ २४-५-३१ लागें न नैननि अचैन चित-एन भरें अंग कर सकल अनंग मतवारे है । कहै रतनाकर बढ़त तन ताप होत दरस-तृषा सौ प्रान परम दुखारे है । औषध उपाय ना विहाइ विष सोई और तलफत हाय परे नंद के दुलारे है । धारे सुरमे की सान-ओप अनियारेअति लोचन तिहारे बलि बिसिष बिसारे है ॥६२॥ २५-५-३१ आए हैं कहाँ ते कहाँ जाइबौ कहाँ है फेरि काकी खोज माहि फिरै जित तित मारे हैं। कहै रतनाकर कहा है काज तास पुनि अकाज के बिभेद कत न्यारे है ॥ काज औ