पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/५९८

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देखि तव अानन अपार सुखमा को भार चित्त चतुरानन के अजगुत जाग्यौ है। कहै रतनाकर सुधा के मंजु आकर सौं तोलन काँ ताहि लोल अति अनुराग्यौ है । समता न पाइ पै उपाय करिबे कौँ कछू हमता लगाइ ममता सौँ मोह पाग्यौ है। तारनि की रासि सौं बढ़ायौ तासु गौरब पै तो हूँ पला चंद को अकास जाइ लाग्यौ है ॥८४॥ १४-५-३२ देखि तव आनन अनूप सुख रूप महा जाकी सुखमा कौ जग होत गुन-गुंज है। कहै रतनाकर सुधाकर बनावै विधि ताकी समता कौँ हमता के परि तुंज है ॥ तेरौ दिव्य दुति सो न दीपति बिलोकि ताकी सकुचि सिहाइ होति मति गति लुंज है। तोरि तोरि डारत बिथोरि रिस भारनि सौं होत दिसि चारनि सो तारनि को पुंज है ॥८५॥ १६-५-३२ जारे देत किंसुक उजारे देत गंधवाह दाप कै बिचारे बिरहीनि के निकर पै। कहै रतनाकर प्रचारि बाट पारे देत पिक मतवारे व्यथा-मारे की डगर पै॥