पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६०

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औ अपने परिमित चित की पुहुमी सौं देखै, निकट दृस्य ही पीछे का प्रस्ताव न पेखै; पै बिचित्र विस्मयजुत अवलोकत आण बढ़ि, अमित सास्त्र के दूर दृस्य नूतन आवत कढ़ि । प्रथम रीमि त्यौँ हम हिमगिरि चढ़िवा अभिला, खाडिनि पै चढ़ि जानि लेत नभ पै पग राखें । ज्ञात होत हिमदल सदैव थाई पछियाने, प्रथम मुंग औ मेघ परत अंतिम से जाने पाइ उन्हैं पै हम इत उत कातर है देखें, बर्द्धमान सम परिवर्द्धित मग काँ जब पेबैं; अति अधिकौहैं दृस्य चपल चख पखहिँ थकाएँ, सुंगनि ऊपर मुंग गिरिनि पै गिरि चलि आवै ॥ पूरन जाँचक पहिले पढ़हि ग्रंथ कविता को, सोइ दृष्टि से जासौं रच्यौ रचयिता ताको । जांचहि सोधि समस्त न लघु छिद्रनि मन लावै, जहाँ प्रकृति आचरहि चोप चित चाक चढ़ावैः तिहि मात्सरिक मंद सुख हित खोवै नहिँ मन कौं, अति उदार आनंद कवित-गुन पै रीझनि कौं॥ पै ऐसी गीतनि पै जिनमैं ज्वार न भाटी, सुद्ध सिथिल श्री नीच धरै एकै परिपाटी,