पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६००

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लखि ब्रजराज को लड़तौ उहि बैंड़ अरी पैं. पैं. ऍडि पग धारत चलत है। कहै रतनाकर बिछाई मग आँखिनि के लाख अभिलाषनि उभारत चलत है॥ सुमन सुबास लाइ रुचिर बनाइ रच्यो कंदुक अनंद सौँ उछारत चलत है। करि करि मनौ हाथ मन दिखवैयनि के परखत पारत सँभारत चलत है॥ ८९ ॥ २१-५-३२ संग मैं तरैयनि के राका रजनीस चारु चौहरे अटा पै छटा बलित बिराज्यौ है । कहै रतनाकर निहारि सो नबेली निज आनन सौं करन-मिलान-ब्याँत साज्यौ है। संग लै सयानी सखियानि नियरान चली पग-पग नपुर-निनाद मग बाज्यौ है। ज्यों-ज्यों मंद-मंद चढ़ी आवति गरूर बढ़ी त्यौँ त्यौँ मद-चूर चंद दूरि जात भाज्यौ है ॥१०॥ ३-६-३२ सकत न नैकुहूँ सँताप सहि मित्रनि के होत आप द्रबित गिरीस सुखकारी हैं। कहै रतनाकर सु मत न थाँभौ फेरि चलत धधाइ भए औढर ढरारी हैं।