पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६०१

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कृपा-छमा-दान-बरदान-सनमान थाह-हीन प्रचुर प्रवाह होत भारी है। एक गंग-धारी तुम्हैं कहत सबै है पर आप तौ पुरारी किये पंच गंग जारी हैं ॥११॥ देखि मुगलदल में बिबस प्रताप परयो आड़े कैलवाड़े को सु झाला भूमि आयौ है । कहै रतनाकर खदेस अनुरक्ति श्रानि स्वामि-भक्ति ठानि प्रान पानि धरि धायौ है॥ चीरि भीर काढ्यौ ताहि तुरत अलच्छित के लच्छ परपच्छिनि को श्राप को बनाया है। दीन्ही भुजा साथ मेदपाट की धुजा हाथ हेम-छत्र लै के छम-छत्र सिर छायौ है॥९२॥ ९-६-३२ रानी पृथिराज की निहारति सिँगार-हाट पारति सु दीठि गथ विविध विसाती पै। कहै रतनाकर फिरी त्यौं फंसी फंद बीच लपक्यौ नगीच नीच धरम अराती पै ॥ परसत पानि अानबान राजपूती प्रानि औचक अचूक घात कीन्ही घूमि घाती पै । झटकि झटाक कर पटकि धरा पै धरी काती-नोक गब्बर अकब्बर की छाती पै।।९३॥