पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६०२

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(१८) दोहावलो भौं चितवनि डोरे बरुनि असि कटार फंद तीर । कटत फटत बँधत बिधत जिय हिय मन तन बीर ॥१॥ कापै तेरे दृगनि की कही बड़ाई जाइ। त्रिभुवन जाके मुख बसै सो जिहिँ रह्यो समाइ ॥२॥ किये लाल जब ते ललकि बाल-नैन निज ऐन । बरुनी ओट उसीर की तब तै सीचत मैन ॥३॥ छाके नेह निरास की तब लौ प्यास न जाइ । जब लौ हियौ अघाइ नहिँ दृग-सर-पानिप पाइ ॥ ४॥ चित चितवनि को दीन्यौ बिन तकरार । सहत्यौ कौन तगादौ बारंबार ऋनी धनी सौं हैं परत यों परिहरत उदोत । देखत दिनकर दरस ज्यौं चंद मंद-मुख होत ॥६॥ चंद-मुखिनि के बूंद-बिच निरतत श्री ब्रजचंद। एते चंद बिलोकि भो चंद चकित-चित मंद ॥७॥ नभ जल थल नैना करत निसि दिन रहै अहेर । खंज मीन मृग कहन के बाज ग्राह अरु सेर ॥८॥ सौति-फंद ब्रजचंद लखि चंद-गहन मन मानि । देन चहति जिय-दान तिय तुरत न्हाइ अँसुवानि ॥९॥ आस-पास मैं परि रह्यौ मान-पखेरू पाइ। हाय करत पंजर गरत परत न तऊ उडाइ ॥१०॥