पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६०४

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दारिद-दुख सौँ जासु हिय होय दीन छ। छीन । साधक ताकी व्याधि को कहत मृगांक प्रवीन ॥२०॥ मोसे तारौ तौ बदौँ ताएँ कहा पषान। बानर हूँ के परस सौं होति सिला जलजान ॥२१॥ बरुनी के नीके बने द्वै पिंजरे कलदार। फाँसत खंजन-नैन औ फंसत नैन रिझवार ॥२२॥