पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६१

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" दोषनि सौं बचि, एक मंद गति जो नित राखत, निंदा उचित न, बरन सुचित निद्रा बुध भाषत । कबिता मैं ज्यौँ प्रकृति-दृस्य मैं जो मन मोहै, प्रति अंगनि को पृथक सुडौलपनौ नहि सोहै ।। जिहि सुंदरता कहत अधर दृग सो जनि जानौ, पै मिस्रित प्रभाव सब को परिनाम बखानौ, जैसे जब कोउ सुघर-रचित मंदिर अवलोको, बिस्मयकारक सब जग को औ भारतहू को॥ भिन्न भाग नहिँ पृथक पृथक अजगुत उपजावे, सब मिलि एकहि बार लुभौहैं दृगनि रिझा, कोउ उचान लंबान न तो चौड़ान भयंकर, सब मिलि अति उत्कृष्ट लसत अरु अति सुडौल बर।। जो चाहत देखन सब बिधि अदोष कबिताई, सो चाहत जो भई, न है, न होहिगी भाई ॥ प्रति रचना मैं करता को उद्देस्य बिचारी, (उन अभीष्ट सौं अधिक कोऊ नहिँ बूझनिहारौ), औ जो साधक जोग्य तथा ब्यवहार उचित वर, तो जस-भाजन, छुद्र छिद्र कहुँ रहिबेहू पर ॥ अभ्यस्तनि, औ कबहुँ सुमतिनि परत यह करिबौ, गुरु-दूषन-परिहार-हेतु लघु दूषन धरिबौ ।