पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६३

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हैं ! यह कहा जुद्ध त्यागन कैसी ? बोल्या सो, हाँ, नातरु चलिबौ Qहै मत त्यागि भरत को ॥ सो पुनि कह्यौ रिसाइ "दैव साँ ! सो कछु नाही, हय गज रथ पायक ल्याबहु सब रँग थल माही" ॥ रंगभूमि मैं आइ सकत एता न झमेलौ, "तो नूतन निरमौ कै कढ़ि कछार में खेलौ"। या विधि जाँचक लघु विबेक औ बहु सिड़वारे, अद्भुत पै नहिँ सुज्ञ, सुद्ध नहिँ, खुचुर पियारे, लघु भावनि सौँ भरें तथा इक अँग रुचि घेरे, दूषित करहिँ कलहिँ, ज्यौं व्यवहारहिँ बहुतेरे ॥ केते केवल उत्पेक्षहि मैं निज मति ना), चमचमात कोउ जुक्ति खोजि प्रति पंक्तिनि साथै; कोउ रचना पर रीझि न जहँ कछु जोग्य, जथारथ, एक बुद्धि को घाल-मेल औ अस्तब्यस्त जथ ॥ कबि या भाँति, चितेरनि लौ लिखिवै मैं अकुसल, प्रकृति बनावट रहित सहित, जीवन सेोभा कल, हेम, रतन के पोटनि सौ प्रति अंग दुरावें, निज छमता का लिद्र अलंकारनि सौं छावै ॥ साँची कला-कुसलता, अति मनरंजनिहारी, है, सजिबी सब साज प्रकृति सभा उपकारी,