पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६४

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7 भयौ पूर्वहू जो चिंतित बहुधा मन माही, या सुघराई सौँ पायौ प्रकास पर नाही; सो कछु जाका साँच प्रमानित सब कोउ पावै, चित्र हमारे हिय को जो हमकौँ दरसावै ॥ ज्यौं छाया प्रकास का आनंद अधिक बढ़ावै, सहज सरलता उक्ति-चमत्कृति त्यौं चमकावै ॥ कोउ रचना में उक्ति-अधिकताही अपकारी, ज्यौं स्रोनित बिसेषता सौँ बिनसँ तनधारी ॥ अन्य किते निज सकल ध्यान भाषहिँ पर राँचैं, नर नारिनि लौ ग्रंथनि कौं बसननि साँ जाँचें; 'लसति रीति उत्कृष्ट' सदा यौँ भाषि सराहैं, दरि अभिमान, अर्थ पर करि संतोष, निबाहैं । सब्द लसैं पातनि लौं, जहँ तिनकी अधिकाई, तहाँ अर्थ-फल-लाभ बिसेष न देत दिखाई ॥ काँच पहलवारे लौं देति मृषा बाचाली, प्रति ठामनि काँ निज अँडेहरी रंग प्रभाली; परत पेखि नहिँ प्रकृति जथारथ रूप रसीलो, सब इक रँग झलमलत भेद बिन अति भड़कीलो पै सद-सब्द-प्रयोग, रहित परिवर्तन रवि लौं। करत प्रकासित जाहि बढ़ावत तिहि सुखमा काँ;