पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६५

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करत परिष्कृत प्रभापुंज पूरत तिहि माही, हेम कलित सब करत कछुक पै बदलत नाहौँ । सब्द हृदयगत भावनि के पौसाक बिराजै, जेते ठीकमठोक सुघर तेते नित भ्राजै, उत्प्रेच्छा कोउ तुच्छ, उक्त कार सब्दाडबर, यौँ छबि देति गँवारि सजै ज्यौँ राज-साज-बर । पृथक रीति अनुकूल प्रथम विषयनि सुखमा में, भिन्न बसन ज्यौँ ग्राम, नगर औ राजसभा मैं ॥ किते पुरातन सब्द जोरि भए कीरति-कामी, पदनि माहिँ प्राचीन, अर्थ मैं नव-पथ-गामी; ऐसी ये स्त्रमसाध्य अकारथ बस्तु नकारी, ऐसी रीति विचित्र माहिँ बिरचित बरियारी, मूरख के उर माहिँ मृषा अजगुत उपजावे, पै पंडित परवीननि काँ केवल हिँसावें ॥ दरसावत भाँनि लौँ ये दुर्भाग भइंगी, सुघर सुजन कल कौन बसन कीन्यौ हो अंगी; औ बस यौँ प्राचीननि काँ अनुहरहिँ भगल भरि, ज्यों सतपुरुषनि कौँ बानर, तिनके बागे धरि ॥ सब्दऽरु बसन रीति दोउनि का इक गुरु मानौ, अति नव, कै प्राचीन, एक सौ बेढब जानी; "