पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६६

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बनहु प्रथम जनि नव टकसाल चलावनहारे, तथा न अंतिम तजन माहिँ प्राचीन किनारे ॥ पै बहुतेरे काव्य-जाँच मैं छंदहि देखें, सुढर, कुढर पै, सुद्ध असुद्ध ताहि नित लेखें; दिव्य सरस्वति माहिँ सहस लावन्य जदपि हैं, ये कन-रसिये मूढ़ सराहत स्वरहिँ तदपि हैं; जो सुर-गिरि पर चढ़त नाहिँ निज चित्त सुधारन, बरन परम सामान्य स्रवन-सुखही के कारन ज्यों केते हरि-कथा-मंडली में आवै नित, संचन सुभ उपदेस नाहि, बरु गान सुनन हित ॥ ये केवल चाहत मात्रा एकहि सी आवै, जदपि खुले स्वर बहुधा वनहि अति उकता; त्याँ अपनी बलहीन सहाय अधिक पद ल्या, औ इक सिथिल चरन मैं छुद्र सन्द दस पाएँ । औ उत वे जब एकहि लय का चक्कर साधैं, औ नित बँधे अनुप्रासनि को निस्चय नाथें; जह जहँ सीतल मंद पौन पच्छिम सौं आवत, तह तह पूरि परागपुंज परिमल बगरावत जौ कहुँ सरिता बिमल बहति, गति मंद, सुहाई, तौ तह कंज, सिवार, मीन सेहत सुखदाई,