पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६७

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अंत माहिँ, दल जुगल मात्र पूरित करि, राखत कछुक अनर्थ बस्तु सौं, जाहि उक्ति ये भाषत, सोई दोहा वृथा पूर्न आहुति करि डार, डेढ़-टाँगवारनि लौँ भचकि भचकि पग धारै ॥ देह तिन्हें अपने अनवीकृत लय, तुक जोरन, औ सामान्य सुटर मढ़ियल को ज्ञान बटोरन तथा सराहौ ता तुक की सु सहज प्रौढ़ाई, जामैं ओज पजन को, ठाकुर की मधुराई ॥ साँची सुभग सरलता जौ कविता में भावै, अभ्यासहि सौं होहि न, ऐसहि औचक आवै; जैसे वे, जिन सीख नृत्य विद्या की पाई, चल फिर करत सहजतम भाँति, सहित सुघराई ॥ एता ही नहि इष्ट सदा कविता मैं, भाई, कै कर्कसता सहृदय कौँ न होहि सुखदाई, परमावस्यक धर्म, वरन, यह सुमति प्रकासँ , कै रचना के सब्द अर्थ-प्रतिध्वनि से भारौं । चहियत कोमल बरन पवन जहँ मंद बहत बर, सरिता सरल चाल बरनन हित छंद सरलतर; पै भैरव तरंग जहँ रोरित तट टकरावे, उत्कट, उद्धत बरन, प्रबल प्रवाह लौँ आ4; .