पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/६८

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जह रावन लै जान चहत हठि हर-गिरि भारी, होहि छंद-गति क्लिष्ट सब्दहू सिथिलित चारी; पै ऐसो नहिं जहँ हनुमत धावन बनि धावत, नाँघत सिंधु निसंक, लंक गढ़ कूदि जरावत ॥ देखा किमि भवभूति-काव्य य-बैचित्र लुभावै, सब प्रकार के भावनि की तरंग उपजावै। जब प्रति पलट माहिँ दसरथसुत नई रीति सौं, कबहुँ तेज सौं तपत, कबहुँ पुनि द्रवत प्रीति साँ; कबहुँ नैन विकराल क्रोध की ज्वालनि जागैं, कबहुँ उसास उठे औ बहन आँसु दृग लागें ॥ सब देसनि मैं निज प्रभाव नित प्रकृति बगारति, विस्व विजयतनि काँ सब्दह सौ जय करि डारति; सब्द-माधुरी-सक्ति प्रबल मन मानत सब नर, जैसौ हो भवभूति भयौ तैसा पदमाकर ॥ अति सौं बचौ, तथा त्यागौ उनकी दूषित गति, जो रीझै अत्यंत न्यून, कै सदा अधिक अति ॥ छुद्र छिद्र खोजन सौं वृत्तिहि रखहु घिनाई, प्रगटत यह गुमान गुरुता, के मति-लघुताई; वे मस्तिष्क, उदर ज्यौं, निस्चय उत्तम नाही, सबहि अरोचक, पै कछु पचि न सकत, जिन माहीं ॥