पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७

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9 है और इसे हम उनके अध्ययन की उत्कट अभिरुचि ही कह सकते हैं । यद्यपि इन्हें ब्रजभाषा के अनुशीलन का सुयोग कुछ दिनों बाद प्राप्त हुआ था, तथापि रत्नाकर-ग्रंथावली के अध्ययन से प्रकट होता है कि ब्रजभाषा पर इनका अधिकार ध्यापक और निर्विकल्प था। आरंभ की रचनाओं में भी व्रजभाषा का एक सुष्टु रूप है; किंतु प्रौढ़ कृतियों में, विशेष कर उद्धव-शतक में, रत्नाकर का भाषा-पांडित्य प्रखर रूप में प्रस्फुटित हुआ है। संस्कृत की पदावली को इतने अधिकार के साथ व्रज की बोली में गूंथ देना मामूली काम नहीं है। यही नहीं, रत्नाकर जी ने अपनी काशी को बोली से भी शब्द ले लेकर व्रजभाषा के सांचे में ढाल दिए हैं जो एक अतिशय दुष्कर कार्य है। यदि रत्नाकर जैसे मनस्वी व्यक्ति के सिवा किसी दूसरे को यह कार्य करना पड़ता तो वह अपनी प्रांतीय भाषा को व्रज की टकसाली पदावली में मिलाते समय सौ बार आगा-पीछा करता। बहुतों ने इस मिश्रण कार्य में विफल होकर भाषा की निजता ही नष्ट कर दी है। पर रत्नाकर 'अजगुतहाई', 'गमकावत', 'बगीची', 'धरना', 'पराना' आदि अविरल देशी प्रयोग करते चलते हैं और कहीं वे प्रयोग अस्वाभाविक नहीं जान पड़ते। उनकी भाषा की नाड़ी की यह पहचान बहुतों को नहीं होती। कहीं कहीं 'प्रत्युत', 'निर्धारित' आदि अकाव्योपयोगी शब्दों के शैथिल्य और 'स्वामि-प्रसेद', 'पात-थल', 'दंद-उम्मस' आदि दुरूह पद-जालों के रहते हुए भी उनकी भाषा क्लिष्ट और अग्राह्य नहीं हुई। फुटकर पदों और कृष्णकाव्य में वह शुद्ध व्रज) और गंगावतरण में संस्कृत मिश्रित होती हुई भी किसी न किसी मार्मिक प्रयोग की शक्ति से (ब्रज की माधुरी से पूरित हो गई है। दोनों का एक एक उदाहरण लीजिए- जग सपनौ सौ सब परत दिखाई तुम्है तातें तुम ऊधौ हमैं सोवत लखात हो । कहै रतनाकर सुनै को बात सोवत की जोई मुँह आवत सो बिबस बयात हौ ।। सोवत मैं जागत लखत अपने कौँ जिमि त्यौं ही तुम आपही सुज्ञानी समुझात हौ । जोग जोग कबहूँ न जावै कहा जोहि जको , ब्रह्म ब्रह्म कबहूँ बहकि बररात हौ। (शुद्ध ब्रज) स्यामा सुघर अनूप रूप गुन सील सजोली। मंडित मृदु मुखचंद मंद मुसक्यानि लजीली । काम बाम अभिराम सहस सोभा सुभ धारिनि । साजे सकल सिँगार दिव्य हेरति हिय हारिनि । (संस्कृत-मिश्रित) फारसी के अच्छे पंडित होते हुए भी रत्नाकर जी ने बड़े संयम से काम लिया है, और न तो कहीं कठिन या अप्रचलित फारसी शब्दों का प्रयोग किया है और न कहीं नैसर्गिकता का तिरस्कार ही किया है। गोपियाँ कृष्ण के लिए दो एक बार "सिरताज" का प्रयोग करती हैं। पर वह उपयुक्त और व्यवहार प्राप्त है, कठोर या खटकनेवाला नहीं।