पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७०

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ये तर्कहिँ लहि लीक, तथा सिद्धांत सुधार, भुसे निरर्थहि गहैं, न सोऊ आप निकाएँ ॥ किते न रचना, पै रचिंता के नामहिँ जाँचें, औ लेखहिँ नहिँ भलौ बुरौ, बरु मनुषहिँ खाँचैं, यह सब नीच झुंड मैं सो अति अधम अभागी, जो सघमंड मंदता सौं धनिकनि पछलागा; बड़नि सभा को नियत बिबेचक नितप्रति-वारो, प्रभु-हित-लागि ब्यर्थ बकवादहि ढोवनहारौः महा दरिद्र बतावहि सो मुंगार-सवया, जाको कोऊ भुक्खड़ कवि के हम तुम रचवैया, देहु, बेर इक, कोऊ धनिकहिँ, पै तिहि अपनावन, झलकन प्रतिभा लगति, कांतिमय रीति सुभावन, ताके नाम पुनीत सामुहँ दोष · उड़त सब, डहडहात प्रति खंड पूरि बासना-बसित फब याँ बहकत गँवार अनुसरन कि, बिन जोखे त्यौं पंडित बहुधा सब जग सौं होइ अनोखे । रखत सर्व साधारण सौं भिन यों, जो कहुँ वह, चलें सुपथ, तो जानि बुझि के चलैं कुपथ यह; सूधे विस्वासिनि त्यो तजहिँ धर्म नवग्राही, नष्ट होहिँ, बरु बुद्धि अधिक अति के है वाही ॥