पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७१

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तौ अधिकैहै आजहु कित प्रसंसत प्रात जाहि, निसि ताहि बिनिंदत, पै निरधारत सदा यथारथ निज अंतिम मत । उपबनिता लौं ये सदैव कबिता सौं बिहरत, छन सब विधि सनमानत, पुनि दूजे छन निदरत; जब इनके निर्बल मस्तिष्क, कोट बिन पुर लौँ, प्रति दिन बूझ अबूझ बीच बदलत स्वपच्छ काँ ॥ औ कारन बूझो तो कहैं बुद्धि-अधिकाई, कल बुद्धि सवाई॥ पुरुषनि मूरख गर्ने, बनैं हम इमि बुधिधारी, निस्चय त्यौँ गनिह हमकौं संतान हमारी । गए हुते भरि, या उत्साही देस अनादी, एक बेर बहु धर्माचार्य वितंडाबादी; उनमें सबसौं अधिक वाक्य जाके मुख मंडित, सोई मान्यौ गयौ सबनि तँ गुरुतर पंडित, धर्म, बेद, सबही बिबाद के जोग थिराए, काहू मैं नहि मति एता के जाहिँ हराए । बसे सांत है शंखादिक-मतवारे, निज अनुहारी घाँपनि माहिँ समुंदर खारे॥ जब धर्महि धारयौ बसननि बहु रंग बिरंगी, कहा अचंभी तो जौ होहि बुद्धि बहु ढंगी ? पै अब