पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७२

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. बहुधा तजि तेहि जो स्वाभाविक श्री सुजोग्य अति, प्रचलित मूरखताही जानि परति तत्पर-मति औ लेखक निर्विघ्न लाभ जस को अनुमानें, जियत तबहि लौँ जो जव लौ मृरख मन मानें ।। केते निज दल, औ मतिवारनि कौँ सनमानें, निजहि सदा परिमान मनुध्य-जाति को जानैं ।। औ लुभाय के गुनै करत गुन को आदर तब, औरनि के मिस आत्मस्लाघा ही उचरत जब ॥ कबिताई-तड़ होति राजनैतिक अनुगामिनि, औ सामाजिक पच्छ बढ़ावत घिन निज धामिनि ॥ गर्ब, द्वेष, मूरखता, तुलसी मैं चढ़ि धाए, धर्मध्वज, रसलंपट, जाँचक भेस बनाए। भई सुमति थिर पै हाँसी औ खेल थिराये; उन्नतिसील जोग्यता उभरति अंत दबायें । पै जो वह पुनि आइ हमैं दृग-लाहु लहावै, तौ नव खल औ सठ-समूह उठि खंडन धावै । बरु बर बालमीकिह जो अब सीस उठाचे, तो कोउ दोष-दृष्टि निस्चय निज जीभ चलावै ॥ गुनहिँ द्वेष नित ताकी छाँह सरिस पछियावे, पै छाया लौ सार बस्तु कौँ सत्य थिरावै ।