पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जब परिपक्व रंग कोमल है मेल मिला, उचित मंदता, चटक, माधुरीजुत घुलि, पाएँ, जब मृदुता-प्रद काल परम पूरनता पागै, औ प्रति उग्राकृति मैं जीव परन जब लागै, रंग विसासी होत कला को तब अपकारी, सनै सनै मिटि जाति सृष्टि सब जगमगवारी॥ हतभागिनी कबिता भ्रमदा बस्तुनि लौ भाव, प्रतिकारै नहिं ताहि द्वेष जो सो उपजावै ॥ तरुनाइहि मैं नर असार कीरति-मद धार, सो छनभंगुर मृषा दंभ पै बेगि सिधारैः ज्यों कोउ सुंदर सुमन बसंतागम उपजावै, जो प्रमुदित है खिले, खिलत पै मुरझनि पावै ॥ कहा बस्तु कविता जाऐं दीजै एतो चित ? निज पति की पत्नी, पै जिहि उप्पति भोगत नित; जब अति अधिक प्रसंसित तब अति श्रम-अधिकाई, जेता अधिक प्रदान होहि तेतिय खुजाई; जाकी कीरति कष्ट-रक्ष्य अरु सहन नसौनी, अबसि खिजौनी किते, पै न सब कबहुँ रिझौनी; यह वह जासौं आछे बचें बुरे भय धाएँ, मूरख जाहि घिनाहि, धूर्त नष्हि करि डारें !