पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७४

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उद्योग चाल जब चातुरिहि अविद्यहि सौ एता दुख पावन, देहु न विद्याहूँ कौँ तासौं बैर जगावन ॥ होत पुरस्कृत हुते श्रेष्ठ प्राचीन काल मैं, तथा प्रसंसित सो, जो सुभ जदपि होत हे सेनापतिहि छत्र-अधिकारी, तदपि मिलत हो मुकुट, सेनिकहुँ, सोभाकारी ॥ अब जे उच्च हिमाचल-तुंग-भंग पर आधै , निज श्रम कोऊ और के पात करन मैं लावै ; करत आत्महित इत प्रति आतुर कबिहिँ स्वचारी, उन मृहनि का खेल होति बुधि झगड़नवारी । मैं नित अधम प्रसंसा करिबै मैं दुख मान , जेतहि लेखक तुच्छ नितोही अनहित आने । केहि कुत्सित फल ओर, तथा किहि नीच रीति साँ, नस्वर उद्यत होत कीर्ति की अतज प्रीति सौं ! अहह कबहुँ इमि असुभ प्रतिष्ठा तृषा न धारौ, तथा विबेचक बनि मनुष्यता नाहिँ बिसारौ ॥ सुभ स्वभाव औ सुमति मिलाप निरंतर ठानौ, चूकभरी नर प्रकृति, क्षमा दैवी गुन जानौ ॥ पै जौँ उर उदार मैं गाद रहै कछु छाई, जासौँ द्वेष तथा अामर्ष-मैल न थिराई;