पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७५

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तो ता छोभहिँ कोउ अति असह दोष पैं डारी, या कुकाल मैं ताका नाहि अकाल विचारो॥ अधमास्लल कैसहूँ नाहि छमा अधिकारी, उक्ति, जुक्ति, जद्यपि चितवृत्ति-लुभावनहारी; सिथिलपना अस्लीलताहि मिलि यौँ घिनसान्यौ, माना क्लीब कोऊ कुलटा के प्रेम समान्यो । सुख संपति औ चैन कलित मुटवास काल मैं, उपजी यह दुख घास, तथा बाढ़ी उताल मैं । हुती चोप प्रेमहि की जब चैनी नृप माही; जात हुते बिरलै ही सभा, कबहुँ रन नाही। पुंसचलनि-करि हुते राजसासन के ताने, प्रहसन लिखिर माहिँ राजकाजी अरुझना; एतीये नाहि, जब सुकविनि बरु पिनसिन पाई, और नव राजकुमार करन लागे कबिताई। दरबारिनि-कृत नाटक पर सुंदरि हँसि लोटति, कोऊ नकल बिन अभिनय भय रही नहि खोटति । चूंघट-ओट सुशील नाहिं अपनी छबि छाजति, लगी हँसन कन्या ताऐं जासौँ ही लाजति ॥ बहुरि बिदेसी नृप राज्याधिकार अमनेकी ! दीन्ही उइंड विधर्मपने की: 9 पूरि पंक