पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७६

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नैष्ठारहित पुरोहित लगे समाज सुधारन, मुक्ति-प्राप्ति-सुख-साध्य रीति को सीख प्रचारन; दैव स्वतंत्र प्रजा जिहिँ होहि सत्व निरधारी, दोहि कदाचित जौ जगदीसहु अत्याचारी । उपदेसकहुँ उठाय रखन निंदा सुभ सीखे, दुष्ट सराहे, करन हेत निज स्लाघी तीखे ! कबित-सृष्टि संपाति भाँति या चोप चढ़ाए, सहित घमंड भानु मंडल चढिबै कौँ धाए; औ मुद्रालय कठिन लोह की छातिनवारे, असद अरोक भंड़ीवन के भारन सौं हारे ॥ इन राकसनि, कुतर्किनि लै निज अस्त्र प्रचारी, उत साधा निज बज्र, तथा निज छोभ निकारौ ! तिनि कुबानि पै त्यागहु जो खुचुरी निंदारत, जो बरबस कवि को भ्रम सौँ दोषी निरधारत; दूषनमय दिखराय सबै दोषी जो देखै । जैसैं पाँडु रोगवारो सब पीरेहिँ पेखे ॥ लखा जाँचकनि उचित कहा आचार सिखैबा, न्यायक को आधी करतब बस ज्ञान कमैबौ । रस-अनुभव, विद्या, बिबेक ही सब कछु नाही, जी भाषौ हिय स्वच्छ, सत्य दमकै तिहिँ माही । " . 7