पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७७

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. एतादि नदि, के, मग मानै जो तुम्हें सुहाना, पै तुमहूँ औरनि सौ मेल मिलावन जानौ ॥ मौन रहौ नित जब तुमकौँ निज मति पै संसय, श्री संसय ले बात कही जद्यपि दृढ़ निस्चय । केते ढीठ हठी अडंबरी देखि परत हैं, जो अदि कहुँ भूलें तो सोई टेक धरत हैं; पै तुम अपनी भूल चूक सानंद सकारौ। औ प्रति द्यौसहि गत दिन को साधक निरधारौ ॥ एताही नहिँ इष्ट, होहि सम्मति सदचारी, सुघर झूठ सौँ भाँडा सत्य अधिक अपकारी ऐसे सिखवहु नरनि मना तुम नाहि सिखायौ, यौं अज्ञात पदार्थ लखावहु मनहु भुलायौ ॥ बिना सुसीख सत्य नाहिन उचितादर पावैः केवल साई श्रेष्ठ बुद्धि पर प्रेम जगावै ॥ सम्मति-दान माहिँ कैसहुँ न सूमपन ठानौ; कृपिनाइनि मैं बुद्धि-कृपिनता अधम प्रमानौ ॥ हुद्र-तोष-हित निज कर्तव्य कदापि न छोरी, होहु न इमि सुसील के मुख न्यायहि सौ मोरौ । करहु नैं कुँ भय नाहिँ बुधनि के क्रुद्ध करन कौं, होत सहिष्णु स्वभाव प्रसंसापात्र नरनि को॥