पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७८

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या अधिकार विवेचक धारि सकै जो नित प्रति, तो यामैं संसय नहि होइ जगत को हित अति; लाल होत पै, लखहु, आत्मश्लाघी अति क्रोधी, जब काहू सौं सुनत कहूँ कोउ सब्द विरोधी, घूरत अति बिकराल किये नैननि भयकारी, ज्यौँ प्राचीन चित्र में कोउ नृप अत्याचारी ॥ मूढ़ प्रतिष्ठित के छेड़न सौं अति भय धारौ, जाको सत्व अटोक करन नित काव्य न कारौ ॥ ऐसे हैं प्रतिभा-बिहीन कबि, जो मन-भावत, ज्यौँ वे जे बिन पड़े परीक्षा साँ तरि आवत ॥ बादि मँडोवन 4 छोड़ो सदबाद भयंकर, औ सुश्रूषा मृषा समर्पक बाचाली पर, करत नाहि विस्वास जगत जिनकी स्लाघा पर, जिनके कबिताई-त्यागन-प्रण पर सौँ गुरुतर ॥ कबहुँ इष्ट अति रखन रोकि निज ताड़नि बानी, औ भद्दनि कौँ होन देन मिथ्या अभिमानी । गहिबौ मौन भलौ बरु तिन पैं सतरैबे सौं, तब लौँ निदि सकै को सकहिँ खचै यह जब लौं, भनभनात ये सदा ऊँघदाई गति साजै, लतियावहु जेतो लड्डुन लौ तेतहि गाजै ॥