पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/७९

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कैसे इनके झंड पै तैसे ही मत्त, चूक उन्हें फिर सौं दौड़न के हेतु उभारे, ज्यौँ अड़ियल टट्ट गिरि कै पुनि चाल सँवारै ॥ सकुच बिन-साहस-साने, सब्द तथा मात्रा खटपट मैं अरुझि बुढ़ाने, धावा करै कबिनि पैं भरै छोभ नस नस लौं, तरछट लॉ औ दाबि कढ़े मस्तिष्क कुरस लौँ, अपनी बुधि की सिथिलित अंतिम बँद निचोरत, औ क्लीवनि को सौं करि क्रोध कूर तुक जोरत ॥ ऐसे निपट निलज्ज कुकवि जग माहि घनेरे, पतित जाँचक बहुतेरे ॥ ग्रंथ-ग्रथित गुट्टलमति, मूरखताजुत पंडित, विद्यापोट अपार भार सिर धरै अखंडित, निज मुख ही सौं निज श्रवनहिँ नित विरद सुनावै, औ अपनी ही सुनत सदा लखिर मैं आचैं। सब ग्रंथनि वे पढ़ें, पढ़ें जो सो सब लूसैं , तुलसीकृत सौं सुवा-बहत्तर लौ सब दूसँ। इन लेखें चोर, मोलें, बहु ग्रंथ-रचैया, लिखी बिहारीलाल नाहि दोहा सतसैया ॥ सनमुख उनके कोउ नव नाटक नाम उचारों, तो झट बोले, "कवि याको है मित्र हमारौं"; .