पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/८

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पिछले दिनों "सूरसागर" का संपादन करते हुए रत्नाकर जी ने पद-प्रयोगों और विशेषतः विभक्ति-चिह्नों के संबंध में जो नियम बनाए थे, वे उनके व्रजभाषा-आधिपत्य के स्पष्टतम सूचक हैं। भाषा पर इस प्रकार अनुशासन करने का अधिकार बहुत बड़े वैयाकरण ही प्राप्त कर सकते हैं। व्याकरण के साथ रत्नाकर जी का संबंध बहुत ही साधारण था, तथापि उनकी वे विधियां बहुत अंशों में संभवतः सदैव मान्य ही समझी जायँगी; और यदि किसी कारण से मान्य न भी समझी जाय, तो भी उनसे रत्नाकर जो की वह अधिकार-भावना तो प्रकट ही होती रहेगी जिसके बल पर उन्होंने वे विधियाँ बनाई हैं। (छंदों की कारीगरी और संगीतात्मकता में रत्नाकर जी की अधिकार- पूर्ण कलम स्वीकार की गई है-विशेषतः इनके कवित्त बेजोड़ हुए हैं। हिंदी और अँगरेजी के कवियों की भ्रांत तुलनाएं अधिकांश पत्र- कलाविद् पत्रिकाओं में देखने को मिलती हैं; परंतु भाषा-सौंदर्य, संगीत और छंद-संघटन में-कविता की कला पक्ष की सुघरता में यदि रत्नाकर की तुलना अँगरेज कवि टेनीसन से की जाय तो बहुत अंशों में उपयुक्त होगी। टेनीसन की कारीगरी भी रत्नाकर की ही भांति विशेष पुष्ट और संगीत से अनुमोदित हुई है। इन दोनों कवियों की सर्वश्रेष्ठ विशेषता यही भाषा-चमत्कार और छंदों को रमणीयता स्थापित करने में है। चाहे इन दोनों में भावना को मौलिकता अधिक व्यापक और उदात्त न हो, तो भी रचना-चातुरी में ये दोनों ही पारंगत हुए हैं । आधुनिक खड़ी बोली में भी कवित्त छंद बने हैं और बन रहे हैं, परंतु उन्हें रत्नाकर जी के कवित्तों से मिलाते ही दोनों का भेद स्पष्ट हो जाता है। नवीन हिंदी के कवियों को "रतनाकर” की यह कला वर्षों सीखने पर भी आ सकेगी या नहीं, इसमें संदेह ही है। खड़ी बोली में अनूप के कवित्त कुछ अधिक प्रौढ़ हैं, पर उनके एक सुंदर कवित्त से रत्नाकर के किसी छंद को मिलाकर देखिए- आदिम बसंत का प्रभात काल सुंदर था आशा की उषा से भूरि भासित गगन था। दिव्य रमणीयता से भासमान रोदसी में स्वच्छ समालोकित दिगंगना सदन था । उच्छल तरंगों से तरंगित पयोनिधि था सारा व्योम-मंडल समुज्ज्वल अघन था। आई तुम दाहिने अमृत बाएं कालकूट आगे था मदन पीछे त्रिविध पवन था । (अनूप) कान्ह हूँ सौं आन ही बिधान करिबै कौँ ब्रह्म मधुपुरियानि की चपल कँखियाँ चहै । कहै रतनाकर हँसै कै कहौ रोवै अब गगन अथाह थाह लेन मखियाँ चहै॥ F.ख