पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

एतहि नहि बरु कहैं, दोष याम हम काढ़े, कब काहू की सुनि सुधरत ५ कबि मद-बाढ़े ? कैसहु ठाम पवित्र रोक इनका कहुँ नाही, मरघट सौं रक्षा न अधिक कोउ तीरथ माही। देवलहूँ मैं गये बादि बकि ये हति डाएँ, मूरख धंसैं निसंक सुमन जहँ डरि पग धारै ॥ सुमति ससंक, सुसील, सावधानी सौं बोले, सदा सहज लखि परै, चढ़ाई लघु पर डोलै; पै दुरमति घहराय बाढ़ बकबक की छोरै, श्री कबहूँ ठठकै न औ न कबहूँ मुख मोरे, थामैं थमति न नैकु, भरी अतिसय उमाह सौं, चलति छोड़ि मर्याद प्रबल रोरित प्रबाह सौं॥ कहाँ मिलत पै ऐसौ सज्जन सुमति-प्रदानी, सीख देन मैं मुदित, ज्ञान को नहि अभिमानी ? बिकृत न राग द्वेष साँ, अंधौ पहिलहि सौँ न सढील पच्छ धारै उर माही; पंडित तऊ सुसील, सुसील तऊ कपटारी, निडर नम्रता सहित, दयाजुत दृढ़ब्रत-धारी, सकै दिखाय मित्र को जो तेहि दोष असंस, औ सहर्ष सत्रुहँ के गुन को भाषि प्रससै ? . नाही;